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हरि इच्छा

एक बार भगवान विष्णु गरुड़जी पर सवार होकर कैलाश पर्वत पर जा रहे थे। रास्ते में गरुड़जी ने देखा कि एक ही दरवाजे पर दो बारातें ठहरी थीं। मामला उनके समझ में नहीं आया, फिर क्या था, पूछ बैठे प्रभु को। .....

गरुड़जी बोले ! प्रभु ये कैसी अनोखी बात है कि विवाह के लिए कन्या एक और दो बारातें आई हैं। मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा है, प्रभु बोले- हाँ एक ही कन्या से विवाह के लिए दो अलग-अलग जगह से बारातें आई हैं।

 एक बारात पिता द्वारा पसन्द किये गये लड़के की है, और दूसरी माता द्वारा पसन्द किये गये लड़के की है। यह सुनकर गरुड़जी बोले- आखिर विवाह किसके साथ होगा ? 

प्रभु बोले- जिसे माता ने पसन्द किया और बुलाया है उसी के साथ कन्या का विवाह होगा, क्योंकि कन्या का भाग्य किसी और के साथ जुड़ा हुआ है,,,, भगवान की बातें सुनकर गरुड़जी चुप हो गए और भगवान को  बैकुंठ पर पहुँचाकर कौतुहल वश पुनः उसी जगह आ गए जहाँ दोनों बारातें ठहरी थीं।

गरुड़जी ने मन में विचार किया कि यदि मैं माता के बुलाए गए वर को यहाँ से हटा दूँ तो कैसे विवाह संभव होगा, फिर क्या था; उन्होंने भगवद्विधान को देखने की जिज्ञासा के लिए तुरन्त ही उस वर को उठाया और ले जाकर समुद्र के एक टापू पर धर दिए। 

ऐसा कर गरुड़जी थोड़ी देर के लिए ठहरे भी नहीं थे कि उनके मन में अचानक विचार दौड़ा कि मैं तो इस लड़के को यहाँ उठा लाया हूँ पर यहाँ तो खाने-पीने की कोई व्यवस्था नहीं है,  ऐसे में इस निर्जन टापू पर तो यह भूखा ही मर जाएगा और वहाँ सारी बारात मजे से छप्पन भोग का आनन्द लेंगी, यह कतई उचित नहीं है,  इसका पाप अवश्य ही मुझे लगेगा। 

मुझे इसके लिए भी खाने का कुछ इंतजाम तो करना ही चाहिए, यदि विधि का विधान देखना है तो थोड़ा परिश्रम तो मुझे करना ही पड़ेगा। और ऐसा विचार कर वे वापस उसी स्थान पर फिर से आ गए।

इधर कन्या के घर पर स्थिति यह थी कि वर के लापता हो जाने से कन्या की माता को बड़ी निराशा हो रही थी। परन्तु अब भी वह अपने हठ पर अडिग थी। अतः कन्या को एक भारी टोकरी में बैठाकर ऊपर से फल-फूल, मेवा-मिष्ठान आदि सजा कर रख दिया, जिसमें कि भोजन-सामग्री ले जाने के निमित्त वर पक्ष से लोग आए थे। 

माता द्वारा उसी टोकरी में कन्या को छिपाकर भेजने के पीछे उसकी ये मंशा थी कि वर पक्ष के लोग कन्या को अपने घर ले जाकर वर को खोजकर उन दोनों का ब्याह करा देंगे। माता ने अपना यह भाव किसी तरह होने वाले समधि को सूचित भी कर दिया।

अब संयोग की बात देखिये, आंगन में रखी उसी टोकरी को जिसमे कन्या की माता ने विविध फल-मेवा, मिष्ठानादि से भर कर कन्या को छिपाया था, गरुड़जी ने उसे भरा देखकर उठाया और ले उड़े। उस टोकरी को ले जाकर गरुड़जी ने उसी निर्जन टापू पर जहाँ पहले से ही वर को उठा ले जाकर उन्होंने रखा था, वर के सामने रख दिया। 

इधर भूख के मारे व्याकुल हो रहे वर ने ज्यों ही अपने सामने भोज्य सामग्रियों से भरी टोकरी को देखा तो उसने टोकरी से जैसे ही खाने के लिए फल आदि निकालना शुरू किया तो देखा कि उसमें सोलहों श्रृंगार किए वह युवती बैठी है जिससे कि उसका विवाह होना था। गरुड़जी यह सब देख कर दंग रह गए। 

उन्हें निश्चय हो गया कि :–‘हरि इच्छा बलवान।’

*‘राम कीन्ह चाहैं सोई होई, करै अन्यथा आस नहिं कोई।’*

 फिर तो शुभ मुहुर्त विचारकर स्वयं गरुड़जी ने ही पुरोहिताई का कर्तव्य निभाया। वेदमंत्रों से विधिपूर्वक विवाह कार्य सम्पन्न कराकर वर-वधु को आशीर्वाद दिया और उन्हें पुनः उनके घर पहुँचाया।

तत्पश्चात प्रभु के पास आकर सारा वृत्तांत निवादन किए और प्रभु पर अधिकार समझ झुंझलाकर बोले- "प्रभो- आपने अच्छी लीला की, सारे विवाह के कार्य हमसे  करवा दिये।" भगवान गरुड़जी की बातों को सुनकर मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे थे।


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