श्रीकृष्ण की 16 कलाएं, भगवान श्री विष्णु के दशावतार में कोई 8 कलायुक्त कोई 5 कलायुक्त माना जाता है, इनमें सर्वाधिक 16 कलाओं से युत श्री कृष्ण को मन जाता है, क्या, क्यो इस को जानने हेतु देखे यह आलेख?
★भगवान विष्णु के 24 अवतारों के बारे में हम सभी सनातन प्रेमी भलीभांति परिचित है। पुराण श्रुतियों आदि के माध्यम से हमे यह भी जानकारी मिली है कि सभी अवतारों में भगवान श्री कृष्ण श्रेष्ठ अवतार थे क्योंकि वे संपूर्ण कला अवतार थे जबकि बाकि जन्मों में जब भगवान विष्णु ने अवतार रूप लिया तो कुछ कलाओं के साथ ही लिया जिससे वे संपूर्ण अवतार नहीं कहलाये। ऐसे में इन कलाओं के बारे में जानना जरूरी हो जाता है आखिर कौनसी कलाएं थी भगवान श्री कृष्ण में जो उन्हें पूर्णावतार बनाती हैं। आइये जानते हैं।
★कला वैसे सामान्य शाब्दिक अर्थ के रूप में देखा जाये तो कला एक विशेष प्रकार का गुण मानी जाती है। यानि सामान्य से हटकर सोचना, सामान्य से हटकर समझना, सामान्य से हटकर खास अंदाज में ही कार्यों को अंजाम देना कुल मिलाकर लीक से हटकर कुछ करने का ढंग व गुण जो किसी को आम से खास बनाते हों कला की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। भगवान विष्णु ने जितने भी अवतार लिये सभी में कुछ न कुछ खासियत होती थी वे खासियत उनकी कला ही थी।
★भगवान श्री कृष्ण को चूंकि संपूर्ण कला अवतार माना जाता है इसलिये कलाओं की संख्या भी सोलह ही मानी जाती है।
★16 कलाएं अर्थ सहित
श्री संपदा- श्री संपदा इसका तात्पर्य है कि जिसके पास भी श्री कला या संपदा होगी वह धनी होगा। धनी होने का अर्थ सिर्फ पैसा व पूंजी जोड़ने से नहीं है बल्कि मन, वचन व कर्म से धनी होना चाहिये। ऐसा व्यक्ति जिसके पास यदि कोई आस लेकर आता है तो वह उसे निराश नहीं लौटने देता। श्री संपदा युक्त व्यक्ति के पास मां लक्ष्मी का स्थायी निवास होता है। कह सकते हैं इस कला से संपन्न व्यक्ति समृद्धशाली जीवनयापन करता है।
भू संपदा- इसका अभिप्राय है कि इस कला से युक्त व्यक्ति बड़े भू-भाग का स्वामी हो, या किसी बड़े भू-भाग पर आधिपत्य अर्थात राज करने की क्षमता रखता हो। इस गुण वाले व्यक्ति को भू कला से संपन्न माना जा सकता है।
कीर्ति संपदा- कीर्ति यानि की ख्याति, प्रसिद्धि अर्थात जो देश दुनिया में प्रसिद्ध हो लोगों के बीच काफी लोकप्रिय, विश्वसनीय माने जाता हो व जन कल्याण कार्यों में पहल करने में हमेशा आगे रहता हो ऐसा व्यक्ति कीर्ति कला या संपदा युक्त माना जाता है।
वाणी सम्मोहन-कुछ लोगों की आवाज़ में एक अलग तरह का सम्मोहन होता है। लोग ना चाहकर भी उनके बोलने के अंदाज की तारीफ करते हैं। ऐसे लोग वाणी कला युक्त होते हैं इन पर मां सरस्वती की विशेष कृपा होती है। इन्हें सुनकर क्रोधी भी एकदम शांत हो जाता है। इन्हें सुनकर मन में भक्ति व प्रेम की भावना जाग जाती है।
लीला- इस कला से युक्त व्यक्ति चमत्कारी होता है उसके दर्शनों में एक अलग आनंद मिलता है। श्री हरि की कृपा से कुछ खास शक्ति इन्हें मिलती हैं जो कभी कभी अनहोनी को होनी और होनी को अनहोनी करने के साक्षात दर्शन करवाते हैं। ऐसे व्यक्ति जीवन को भगवान का दिया प्रसाद समझकर ही उसे ग्रहण करते हैं।
कांति- कांति वह कला है जिससे चेहरे पर एक अलग नूर पैदा होता है, जिससे देखने मात्र से आप सुध-बुध खोकर उसके हो जाते हैं। यानि उनके रूप सौंदर्य से आप प्रभावित होते हैं। चाहकर भी आपका मन उनकी आभा से हटने का नाम नहीं लेता और आप उन्हें निहारे जाते हैं। ऐसे व्यक्ति को कांति कला से युक्त माना जा सकता है।
विद्या- विद्या भी एक कला है जिसके पास विद्या होती है उसमें अनेक गुण अपने आप आ जाते हैं विद्या से संपन्न व्यक्ति वेदों का ज्ञाता, संगीत व कला का मर्मज्ञ, युद्ध कला में पारंगत, राजनीति व कूटनीति में माहिर होता है।
विमला- विमल यानि छल-कपट, भेदभाव से रहित निष्पक्ष जिसके मन में किसी भी प्रकार मैल ना हो कोई दोष न हो, जो आचार विचार और व्यवहार से निर्मल हो ऐसे व्यक्तित्व का धनी ही विमला कला युक्त हो सकता है।
उत्कर्षिणि शक्ति- उत्कर्षिणि का अर्थ है प्रेरित करने क्षमता जो लोगों को अकर्मण्यता से कर्मण्यता का संदेश दे सकें। जो लोगों को मंजिल पाने के लिये प्रोत्साहित कर सके। किसी विशेष लक्ष्य को भेदने के लिये उचित मार्गदर्शन कर उसे वह लक्ष्य हासिल करने के लिये प्रेरित कर सके जिस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने युद्धभूमि में हथियार डाल चुके अर्जुन को गीतोपदेश से प्रेरित किया। ऐसी क्षमता रखने वाला व्यक्ति उत्कर्षिणि शक्ति या कला से संपन्न व्यक्ति माना जा सकता है।
नीर-क्षीर विवेक- ऐसा ज्ञान रखने वाला व्यक्ति जो अपने ज्ञान से न्यायोचित फैसले लेता हो इस कला से संपन्न माना जा सकता है। ऐसा व्यक्ति विवेकशील तो होता ही है साथ ही वह अपने विवेक से लोगों को सही मार्ग सुझाने में भी सक्षम होता है।
कर्मण्यता- जिस प्रकार उत्कर्षिणी कला युक्त व्यक्ति दूसरों को अकर्मण्यता से कर्मण्यता के मार्ग पर चलने का उपदेश देता है व लोगों को लक्ष्य प्राप्ति के लिये कर्म करने के लिये प्रेरित करता है वहीं इस गुण वाला व्यक्ति सिर्फ उपदेश देने में ही नहीं बल्कि स्वयं भी कर्मठ होता है। इस तरह के व्यक्ति खाली दूसरों को कर्म करने का उपदेश नहीं देते बल्कि स्वयं भी कर्म के सिद्धांत पर ही चलते हैं।
योगशक्ति- योग भी एक कला है। योग का साधारण शब्दों में अर्थ है जोड़ना यहां पर इसका आध्यात्मिक अर्थ आत्मा को परमात्मा से जोड़ने के लिये भी है। ऐसे व्यक्ति बेहद आकर्षक होते हैं और अपनी इस कला से ही वे दूसरों के मन पर राज करते हैं।
विनय- इसका अभिप्राय है विनयशीलता यानि जिसे अहं का भाव छूता भी न हो। जिसके पास चाहे कितना ही ज्ञान हो, चाहे वह कितना भी धनवान हो, बलवान हो मगर अहंकार उसके पास न फटके। शालीनता से व्यवहार करने वाला व्यक्ति इस कला में पारंगत हो सकता है।
सत्य धारणा- कहते हैं सच बहुत कड़वा होता है इसलिये सत्य को धारण करना सबके बस में नहीं होता विरले ही होते हैं जो सत्य का मार्ग अपनाते हैं और किसी भी प्रकार की कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सत्य का दामन नहीं छोड़ते। इस कला से संपन्न व्यक्तियों को सत्यवादी कहा जाता है। लोक कल्याण व सांस्कृतिक उत्थान के लिये ये कटु से कटु सत्य भी सबके सामने रखते हैं।
आधिपत्य- आधिपत्य वैसे यह शब्द सुनने में तो ताकत का अहसास कराने वाला मालूम होता है, लेकिन यह भी एक गुण है। असल में यहां आधिपत्य का तात्पर्य जोर जबरदस्ती से किसी पर अपना अधिकार जमाने से नहीं है बल्कि एक ऐसा गुण है जिसमें व्यक्ति का व्यक्तित्व ही ऐसा प्रभावशाली होता है कि लोग स्वयं उसका आधिपत्य स्वीकार कर लेते हैं। क्योंकि उन्हें उसके आधिपत्य में सरंक्षण का अहसास व सुरक्षा का विश्वास होता है।
★अनुग्रह क्षमता -जिसमें अनुग्रह की क्षमता होती है वह हमेशा दूसरों के कल्याण में लगा रहता है, परोपकार के कार्यों को करता रहता है। उनके पास जो भी सहायता के लिये पंहुचता वह अपने सामर्थ्यानुसार उक्त व्यक्ति की सहायता भी करते हैं।
★कुल मिलाकर जिसमें भी ये सभी कलाएं अथवा इस तरह के गुण होते हैं वह ईश्वर के समान ही होता है। क्योंकि किसी इंसान के वश में तो इन सभी गुणों का एक साथ मिलना दूभर ही नहीं असंभव सा लगता है, क्योंकि साक्षात ईश्वर भी अपने दशावतार रूप लेकर अवतरित होते रहे हैं लेकिन ये समस्त गुण केवल द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के अवतार रूप में ही मिलते हैं। जिसके कारण यह उन्हें पूर्णावतार और इन सोलह कलाओं का स्वामी कहा जाता है।