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गागरौन ( हाड़ौती का गौरव) :-
गागरौन राजस्थान के हाड़ौती अंचल में बसा हुआ ये किला राजस्थान का पहला जल दुर्ग है जिसका निर्माण डोडा परमारो द्वारा कालीसिंध नदी के मुहाने पर बनाया गया है। डोडा परमारो के बाद यहा पर खींची चौहानों का शासन रहा है सन 1423 ई में मालवा के शासक होशंगशाह ने एक विशाल सेना लेकर गागरौन पर चढ़ाई कर दी , उस वक़्त के तत्कालीन गागरौन के शासक अचलदास खींची से होशंगशाह को कड़ी टक्कर मिली ऐसा माना जाता रहा है कि ये युद्ध गागरौन के इतिहास का सबसे भयानक युद्ध था, इस युद्ध का ह्रदयविदारक विवरण तत्कालीन कवि शिवदास गाडण की रचना " अचलदास खींची री वचनिका " में किया गया है , माना जाता है कि गंगरौन के इतिहास का यह भयंकर संग्राम लगभग एक पखवाड़े तक चला जिसका परिणाम भयानक रहे। अचलदास खींची और उनके सभी प्रमुख योद्धा इस युद्ध मे वीरगति को प्राप्त हुए उनकी मृत्यु का समाचार सुन कर किले के अंदर की वीरांगनाओं ने जौहर कुंड की आग में खुद को समर्पित कर दिया और उस आवत हुआ जोहर गागरौन के इतिहास का पहला जौहर था जो पूर्णतः एक शाका ( केशरिया औऱ जोहर जब दोनों एक साथ हो जाते है उस घटना को शाका कहते है) हुआ था। इसमें होशंगशाह की विजय हुई, और गागरौन पर मालवा का अधिकार हो गया।
गागरौन का दूसरा शाका :-
सन 1444 ई में मालवा के शासक महमूद खिलजी ने गागरौन पर आक्रमण कर दिया तब के तत्कालीन गागरौन के रक्षक धीरसिंह तथा शासक पल्हन ने महमूद खिलजी का युद्ध के मैदान में डट कर सामना किया औऱ दोनों वीरगति को प्राप्त हुए उन दोनों की मृत्यु के पश्चात राजपूतो सैनिक केशरिया बाना पहन कर युद्ध टूट पड़े और स्त्रियों ने जोहर कुंड में खुद को सौप दिया ये इस किले का दूसरा शाका था। उसके बाद मेवाड़ के शासक महाराणा संग्रामसिंह ने मालवा पर आक्रमण करके सम्पूर्ण मालवा को अपने अधिकार में ले लिया।
रणथम्भौर का शाका
रणथम्भौर का इतिहास :-
रणथंभौर दुर्ग का नाम दक्षिणी पूर्वी राजस्थान में स्थित दुर्गों में सबसे पहले लिया जाता है, ये दुर्ग अरण्य दुर्ग का सबसे बड़ा उदाहरण है । ये दुर्ग वर्तमान के बाघों के घर कहे जाने वाले नेशनल टाइगर रिज़र्व रणथंभौर के अंदर बसा हुआ है, ये वही टाइगर रिज़र्व है जब पूरे देश मे टाइगर समाप्ति की कगार पर थे तब इसी अभ्यारण्य ने पूरे देश को बाघों से रूबरू करवाया था, जिसमे अंतराष्ट्रीय लेवल पर ख्याति प्राप्त बघिनी " मछली - द क्रोकोडाइल हंटर " भी थी ये वो ही मछली थी जिन्होंने तालाब के अंदर एक मगरमच्छ का शिकार किया था, हालांकि हालही में मछली का बीमारी की वजह से निधन हो गया। खैर हम बात करेंगे रणथंभौर की जिसके निर्माण का प्रथम शासन के बारे में तरह तरह की भ्रंतिया है, हर इतिहासकार औऱ लोकमतो के हिसाब से हर किसी का अलग मत रहा हैं। माना जाता है कि इसका निर्माण 8वी शताब्दी में टाटू मीणा सरदारों द्वारा किया । 1192 में तहराइन के युद्ध में मुहम्मद गौरी से हारने के बाद दिल्ली की सत्ता पर पृथ्वीराज चौहान का अंत हो गया और उनके पुत्र गोविन्द राज ने रणथंभोर को अपनी राजधानी बनाया। गोविन्द राज के अलावा वाल्हण देव, प्रहलादन, वीरनारायण, वाग्भट्ट, नाहर देव, जैमेत्र सिंह, हम्मीरदेव, महाराणा कुम्भा, राणा सांगा, शेरशाह सुरी, अल्लाऊदीन खिलजी, राव सुरजन हाड़ा और मुगलों के अलावा आमेर के राजाओं आदि का समय-समय पर नियंत्रण रहा लेकिन इस दुर्ग की सबसे ज्यादा ख्याति हम्मीर देव (1282-1301) के शासन काल में रही। हम्मीरदेव का 19 वर्षो का शासन इस दुर्ग का स्वर्णिम युग था। हम्मीर देव चौहान ने 17 युद्ध किए जिनमे 13 युद्धो में उसे विजय प्राप्त हुई। रणथंभोर दुर्ग पर आक्रमणों की भी लम्बी दास्तान रही है जिसकी शुरुआत दिल्ली के कुतुबुद्दीन ऐबक से हुई और मुगल बादशाह अकबर तक चलती रही। मुहम्मद गौरी व चौहानो के मध्य इस दुर्ग की प्रभुसत्ता के लिये 1209 में युद्ध हुआ। इसके बाद 1226 में इल्तुतमीश ने, 1236 में रजिया सुल्तान ने, 1248-58 में बलबन ने, 1290-1292 में जलालुद्दीन खिल्जी ने आक्रमण किया उज़के बाद 13वी सदी में तत्कालीन सम्राट हम्मीरदेव थे जिनके शासनकाल मे खिलजी वंश के शासक अल्लाउद्दीन खिलजी ने सन 1301 ई में रणथंभौर पर आक्रमण किया। इतिहासकारो की माने तो इस आक्रमण से पहले खिलजी ने 3 असफल आक्रमण किये थे।
करीब एक शताब्दी तक ये दुर्ग चितौड़ के महराणाओ के अधिकार में भी रहा। खानवा युद्ध में घायल राणा सांगा को इलाज के लिए इसी दुर्ग में लाया गया था।
रणथम्भौर का शाका :-
बोलते है कि 3 हठ संसार मे सबसे बड़े है " राज हठ, बाल हठ, त्रिया हठ " ये तीनो हठ संसार मे कुछ भी करवा सकते है। उन्ही में से एक राज हठ जिसे राजा द्वारा किया हुआ हठ भी कहते है , उसका सबसे बड़ा उदाहरण थे राव राजा हम्मीर देव् जिन्हें इतिहास " हम्मीर हठीले " के नाम से भी जानते है।
हम्मीर महाकाव्य में एक बात हम्मीर हठ के बारे में कही गयी है
" सिंह गमन तत्पुरूष वचन, कदली फले इक बार।
त्रिया , तेल , हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार ॥ "
क्या था हम्मीर देव् का वो हठ जिसकी वजह से रणथम्भौर का पहला शाका और राजस्थानी इतिहास का पहला जल जौहर किया गया।
हम्मीर देव चौहान, पृथ्वीराज चौहान के वंशज थे। उन्होने रणथंभोर पर 1282 से 1301 तक राज्य किया। वे रणथम्भौर के सबसे महान शासकों में सम्मिलित हैं। हम्मीर देव का कालजयी शासन चौहान काल का अमर वीरगाथा इतिहास माना जाता है। हम्मीर देव चौहान को चौहान काल का 'कर्ण' भी कहा जाता है। पृथ्वीराज चौहान के बाद इनका ही नाम भारतीय इतिहास में अपने हठ के कारण अत्यंत महत्व रखता है। राजस्थान के रणथम्भौर साम्राज्य का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं प्रतिभा सम्पन शासक हम्मीर देव को ही माना जाता है। इस शासक को चौहान वंश का उदित नक्षत्र कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।
उस समय खिलजी साम्राज्य का परिचम चारो तरफ फैल रहा था। ई.स. 1299 में अलाउद्दीन की सेना ने गुजरात पर आक्रमण किया था। वहाँ से लूट का बहुत सा धन दिल्ली ला रहे थे। मार्ग में लूट के धन के बँटवारे को लेकर कुछ सेनानायकों ने विद्रोह कर दिया तथा वे विद्रोही सेनानायक राव हम्मीरदेव की शरण में रणथम्भौर चले गए। ये सेनानायक मीर मुहम्मद शाह और कामरू थे। सुल्तान अलाउद्दीन ने इन विद्रोहियों को सौंप देने की माँग राव हम्मीर से की, हम्मीर ने उसकी यह माँग ठुकरा दी। क्षत्रिय धर्म के सिद्धान्तों का पालन करते हुए राव हम्मीर ने, शरण में आए हुए सैनिकों को नहीं लौटाया। शरण में आए हुए की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझा। इस बात पर अलाउद्दीन क्रोधित होकर रणथम्भौर पर युद्ध के लिए तैयार हुआ।
अलाउद्दीन की सेना ने सर्वप्रथम छाणगढ़ पर आक्रमण किया। उनका यहाँ आसानी से अधिकार हो गया। छाणगढ़ पर मुसलमानों ने अधिकार कर लिया यह समाचार सुनकर हम्मीर ने रणथम्भौर से सेना भेजी। चौहान सेना ने मुस्लिम सैनिकों को परास्त कर दिया। मुस्लिम सेना पराजित होकर भाग गई चौहानों ने उनका लूटा हुआ धन व अस्त्र-शस्त्र लूट लिए। वि॰सं॰ 1358 (ई.स. 130) में अलाउद्दीन खिलजी ने दुबारा चौहानों पर आक्रमण किया। छाणगढ़ में दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में हम्मीर स्वयं युद्ध में नहीं गया था। वीर चौहानों ने वीरतापूर्वक युद्ध किया लेकिन विशाल मुस्लिम सेना के सामने कब तक टिकते। अन्त में सुल्तान का छाणगढ़ पर अधिकार हो गया। तत्पश्चात् मुस्लिम सेना रणथम्भौर की तरफ बढ़ने लगी। तुर्की सेनानायकों ने हमीर देव के पास सूचना भिजवायी, कि हमें हमारे विद्रोहियों को सौंप दो, जिनको आपने शरण दे रखी है। हमारी सेना वापिस दिल्ली लौट जाएगी। लेकिन हम्मीर अपने वचन पर दृढ़ थे। उसने शरणागतों को सौंपने अथवा अपने राज्य से निर्वासित करने से स्पष्ट मना कर दिया, तुर्की सेना ने रणथम्भौर पर घेरा डाल दिया। तुर्की सेना ने नुसरत खाँ और उलुग खाँ के नेतृत्व में रणथम्भौर पर आक्रमण किया। दुर्ग बहुत ऊँचे पहाड़ पर होने के कारण शत्रु का वह पहुचना बहुत कठिन था। मुस्लिम सेना ने घेरा कडा करते हुए आक्रमण किया लेकिन दुर्ग रक्षक उन पर पत्थरों, बाणों की बौछार करते, जिससे उनकी सेना का काफी नुकसान होता था। मुस्लिम सेना का इस तरह घेरा बहुत दिनों तक चलता रहा, लेकिन उनका रणथम्भौर पर अधिकार नहीं हो सका।
अलाउद्दीन ने राव हम्मीर के पास दुबारा दूत भेजा की हमें विद्रोही सैनिकों को सौंप दो, हमारी सेना वापस दिल्ली लौट जाएगी। हम्मीर हठ पूर्वक अपने वचन पर दृढ था। बहुत दिनों तक मुस्लिम सेना का घेरा चलूता रहा और चौहान सेना मुकाबला करती रही। अलाउद्दीन को रणथम्भीर पर अधिकार करना मुश्किल लग रहा था। उसने छल-कपट का सहारा लिया। हम्मीर के पास संधि का प्रस्ताव भेजा जिसको पाकर हम्मीर ने अपने आदमी सुल्तान के पास भेजे। उन आदमियों में एक सुर्जन कोठ्यारी (रसद आदि की व्यवस्था करने वाला) व कुछ रोना नायक थे। अलाउद्दीन ने उनको लोभ लालच देकर अपनी तरफ मिलाने का प्रयास किया। इनमें से गुप्त रूप से कुछ लोग सुल्तान की तरफ हो गए। दुर्ग का धेरा बहुत दिनों से चल रहा था, जिससे दूर्ग में रसद आदि की कमी हो गई। दुर्ग वालों ने अब अन्तिम निर्णायक युद्ध का विचार किया। राजपूतों ने केशरिया वस्त्र धारण करके केशरिया किया। राजपूत सेना ने दुर्ग के दरवाजे खोल दिए। भीषण युद्ध करना प्रारम्भ किया। दोनों पक्षों में आमने-सामने का युद्ध था। एक ओर संख्या बल में बहुत कम राजपूत थे तो दूसरी ओर सुल्तान की कई गुणा बडी सेना, जिनके पास पर्याप्त युद्ध सामग्री एवं रसद थी। राजपूतों के पराक्रम के सामने मुसलमान सैनिक टिक नहीं सके वे भाग छूटे भागते हुए मुसलमान सैनिको के झण्डे राजपूतों ने छीन लिए व वापस राजपूत सेना दुर्ग की ओर लौट पड़ी। दुर्ग पर से रानियों ने मुसलमानों के झण्डो को दुर्गे की ओर आते देखकर समझा की राजपूत हार गए , और उन्होंने जौहर का निर्णय लिया तो इस जोहर का नेतृत्व महाराणी रँगादेवी ने किया।
जब हम्मीरदेव वापस किले में आये औऱ विरांगनाओं के द्वारा जौहर किये जाने का पता चला तो उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने अपना सर काट कर कोले में स्थित भगवान शिव की प्रतिमा को अर्पित करके प्राश्चित किया। ये रणथम्भौर के इतिहास का पहला शाका रहा।
जालोर का शाका
सोनगरा चौहानों का गौरव गढ़ जालौर के इतिहास :-
जालौर पर सोनगरा चौहानों का ही शासन था, जब अल्लाऊद्दीन खिलजी ने सोमनाथ पर आक्रमण किया औऱ पवित्र शिवलिंग के टुकड़े टुकड़े कर दिए थे औऱ उन टुकड़ो को अपने सिंहासन के चरणों मे रखवाने के लिये दिल्ली लेकर जा रहा था तो इसकी भनक तत्कालीन जालौर शासक कन्हड़देव चौहान को लगी तो उन्होंने ने पवित्र शिवलिंग को छुड़ाने के लिये खिलजी की सेना पर आक्रमण कर दिया, और शिवलिंग के टुकड़ो को जालोर ले आये औऱ वहा के शिवमन्दिर में उनकी स्थापना करवाई।
मुंहता नैन्सी की ख्यात के अनुसार इस युद्ध में जालौर के राजकुमार विरमदेव की वीरता की कहानी सुन खिलजी ने उसे दिल्ली आमंत्रित किया । उसके पिता कान्हड़ देव ने अपने सरदारों से विचार विमर्श करने के बाद राजकुमार विरमदेव को खिलजी के पास दिल्ली भेज दिया जहाँ खिलजी ने उसकी वीरता से प्रभावित हो अपनी पुत्री फिरोजा के विवाह का प्रस्ताव राजकुमार विरमदेव के सामने रखा जिसे विरमदेव एकाएक ठुकराने की स्थिति में नही थे अतः वे जालौर से बारात लाने का बहाना बना दिल्ली से निकल आए और जालौर पहुँच कर खिलजी का प्रस्ताव ठुकरा दिया ।
शाही सेना पर गुजरात से लौटते समय हमला और अब विरमदेव द्वारा शहजादी फिरोजा के साथ विवाह का प्रस्ताव ठुकराने के कारण खिलजी ने जालौर रोंदने का निश्चय कर एक बड़ी सेना जालौर रवाना की जिस सेना पर सिवाना के पास जालौर के कान्हड़ देव और सिवाना के शासक सातलदेव ने मिलकर एक साथ आक्रमण कर परास्त कर दिया। इस हार के बाद भी खिलजी ने सेना की कई टुकडियाँ जालौर पर हमले के लिए रवाना की और यह क्रम पॉँच वर्ष तक चलता रहा लेकिन खिलजी की सेना जालौर के राजपूत शासक को नही दबा पाई। आखिरी में जून 1310 ई में जालौर दुर्ग की कुंजी कहि जाने वाले दुर्ग सिवाना के दुर्ग पर खिलजी ने आक्रमण किया औऱ उस पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध का परिणाम सिवाना में हुआ पहला शाका रहा जहा तत्कालीन शासक ने वीर सैनिकों के साथ केशरिया किया और रानियों ने जोहर किया।
इस युद्ध के बाद खिलजी अपनी सेना को जालौर दुर्ग रोंदने का हुक्म दे ख़ुद दिल्ली आ गया। उसकी सेना ने मारवाड़ में कई जगह लूटपाट व अत्याचार किए सांचोर के प्रसिद्ध जय मन्दिर के अलावा कई मंदिरों को खंडित किया। इस अत्याचार के बदले कान्हड़ देव ने कई जगह शाही सेना पर आक्रमण कर उसे शिकस्त दी और दोनों सेनाओ के मध्य कई दिनों तक मुटभेडे चलती रही आखिर खिलजी ने जालौर जीतने के लिए अपने बेहतरीन सेनानायक कमालुद्दीन को एक विशाल सेना के साथ जालौर भेजा जिसने जालौर दुर्ग के चारों और सुद्रढ़ घेरा डाल युद्ध किया लेकिन अथक प्रयासों के बाद भी कमालुद्दीन जालौर दुर्ग नही जीत सका और अपनी सेना ले वापस लौटने लगा तभी कान्हड़ देव का अपने एक सरदार विका से कुछ मतभेद हो गया और विका ने जालौर से लौटती खिलजी की सेना को जालौर दुर्ग के असुरक्षित और बिना किलेबंदी वाले हिस्से का गुप्त भेद दे दिया। विका के इस विश्वासघात का पता जब उसकी पत्नी को लगा तब उसने अपने पति को जहर देकर मार डाला। इस तरह जो काम खिलजी की सेना कई वर्षो तक नही कर सकी वह एक विश्वासघाती की वजह से चुटकियों में ही हो गया और जालौर पर खिलजी की सेना का कब्जा हो गया। खिलजी की सेना को भारी पड़ते देख व में कान्हड़ देव ने 1311ई में अपने पुत्र विरमदेव को गद्दी पर बैठा ख़ुद ने अन्तिम युद्ध करने का निश्चय किया। जालौर दुर्ग में उसकी रानियों के अलावा अन्य समाजों की औरतों ने 1584 जगहों पर जौहर की ज्वाला प्रज्वलित कर जौहर किया तत्पश्चात कान्हड़ देव ने शाका कर अन्तिम दम तक युद्ध करते हुए वीर गति प्राप्त की। कान्हड़ देव के वीर गति प्राप्त करने के बाद विरमदेव ने युद्ध की बागडोर संभाली। विरमदेव का शासक के रूप में साढ़े तीन का कार्यकाल युद्ध में ही बिता। आख़िर विरमदेव की रानियाँ भी जालौर दुर्ग को अन्तिम प्रणाम कर जौहर की ज्वाला में कूद पड़ी और विरमदेव ने भी शाका करने हेतु दुर्ग के दरवाजे खुलवा शत्रु सेना पर टूट पड़ा और भीषण युद्ध करते हुए वीर गति को प्राप्त हुआ । विरमदेव के वीरगति को प्राप्त होने के बाद शाहजादी फिरोजा की धाय सनावर जो इस युद्ध में सेना के साथ आई थी विरमदेव का मस्तक काट कर सुगन्धित पदार्थों में रख कर दिल्ली ले गई । कहते है विरमदेव का मस्तक जब स्वर्ण थाल में रखकर फिरोजा के सम्मुख लाया गया तो मस्तक उल्टा घूम गया तब फिरोजा ने अपने पूर्व जन्म की कथा सुनाई। फिरोजा ने उनके मस्तक का अग्नि संस्कार कर ख़ुद अपनी माँ से आज्ञा प्राप्त कर यमुना नदी के जल में प्रविष्ट हो गई |
सिवाना फोर्ट ( जालौर की कुंजी ) का शाका :-
सोनगरा चौहानो का रक्षा कवच :-
जून 1310ई में अल्लाउद्दीन खिलजी एक बड़ी सेना के साथ जालौर के लिए रवाना हुआ और पहले उसने सिवाना पर हमला किया और एक विश्वासघाती के जरिये सिवाना दुर्ग के सुरक्षित जल भंडार में गौ-रक्त डलवा दिया जिससे वहां पीने के पानी की समस्या खड़ी हो गई अतः सिवाना के शासक सातलदेव ने अन्तिम युद्ध का ऐलान कर दिया जिसके तहत उसकी रानियों ने अन्य क्षत्रिय स्त्रियों के साथ जौहर किया व सातलदेव आदि वीरों ने शाका कर अन्तिम युद्ध में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की |
भटनेर का इतिहास औऱ जौहर
भटनेर ( भाटियों का गढ़ )
वर्तमान में हनुमानगढ़ के नाम से मशहूर राजस्थान का एक जिला उस वक्त का भटनेर हुआ करता था जो दिल्ली मुल्तान के रास्ते मे पड़ता था इसलिय इस पर सबसे ज्यादा विदेशी आक्रांताओं ने आक्रमण किया और लुटपाट की उनमे से एक थे तैमूर लंग जब उन्होंने भारत पर आक्रमण किया तो रास्ते मे भटनेर पड़ा और उसने अप्रैल 1398 ई में भारत पर आक्रमण करने के मकसद से विशाल सेना लेकर कूच किया और सितम्बर 1398में सिंधु, झेलम , रावी नदी पार करते हुए अकटुम्बर 1398 में तुलुम्बा पर कब्जा कर लिया । इसी क्रम में तैमूर ने भटनेर पर आक्रमण कर देता हैं औऱ किले का घेरा लगा देता हैं लेकिन जब कुछ हाथ नही लगता तो आस पास के गावो में लूट करने के बाद तैमूर चला जाता है, तत्कालीन भटनेर शासक राव दुलचंद को लगता है तैमूर चला गया तो वो आस्वस्त हो जाता हैं। लेकिन तैमूर धोखे से दोबारा भटनेर पर आक्रमण कर देता हैं इस आक्रमण बेखबर भटनेर की सेना अचानक हुए युद्ध से बौखला जाती है फलस्वरूप राव दुलचंद इस युद्ध मे पराजित हो जाता है और उसके बाद किले में रहने वाली सभी महिलाओं जो हिन्दू ओर मुस्लिम दोनों धर्मो से थी उन्होंने अपनी आस्मिता की रक्षा के लिये जौहर अग्नि में खुद को समर्पित कर दिया।यह राजस्थान के इतिहास का पहला हिन्दू मुस्लिम जौहर था।