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शाका  - एक वीरोचित प्रथा (पार्ट-1)

शाका एक प्रकार की प्रथा है जो दो अलग अलग प्रथा केशरिया औऱ जौहर से मिलकर बनी हैं जब ये दोनों घटना एक साथ घटित होती है उसे शाका कहते है
शाका क्या होता हैं

शाका:- एक वीरोचित प्रथा 

राजस्थानी संस्कृति में अपने आन बान औऱ शान के लिए जानी जाती रही है , 

शाका एक प्रकार की प्रथा थी जो सर्वाधिक राजस्थान में प्रचलित थी। शाका मूलतः दो प्रथा  जोहर और केशरिया  बना है , जब किसी भी राज्य के उप्पर बाहरी आक्रांता आक्रमण कर देता था औऱ उस राज्य के राजा को ये लगता था कि उनका युद्ध मे जीत पाना असंभव है तब उस राज्य की स्त्रियों द्वारा अपनी पवित्रताओर अपने आप को पर पुरुषों के व्यभिचार से बचाने के लिये सामूहिक आत्म दाह किया जाता था जो  जौहर कहलाता था। अपने स्वजनों को मरता देख कर उस राज्य के वीर सैनिक केशरिया बाना पहन कर युद्ध मे मरने मारने के लिये उतरते थे औऱ वीर गति को प्राप्त हो जाते थे उसको केशरिया कहते थे। इन दोनों के घटनाओं के एक साथ घटित होने को ही शाका बोला जाता था।

 जब खुद के बचने की उम्मीद शून्य मात्र रह जाती थी तब ही शाका जैसी घटना को राजपुत्र सैनिक औऱ वीरांगनाएँ अंजाम देते थे । केशरिया होने से पहले राजपूती महिलाओं द्वारा शाका आयोजित किया जाता था ताकि अपने स्वजनों के साथ अनिष्ट होने के भय से मुक्त होकर राजपूती सैनिक मरने मारने की अवस्था मे युद्ध क्षेत्र में जाये और भयमुक्त होकर शत्रु सेना का संहार करे ।


राजस्थान में जितने भी शाके हुए उनमे सबसे ज्यादा शाके और जौहर एक ही शासक के शासन काल मे हुए  वो थे दिल्ली सल्तनत के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी जिसके द्वारा किये गए सभी आक्रमणों में 5 बार राजपुती शासको और वीरांगनाओ द्वारा शाका किया गया था।

राजस्थान का पहला ज्ञात शाका जैसलमेर दुर्ग पर अल्लाउद्दीन खिलजी के सन 1294 आक्रमण के वक़्त हुआ था।

उसके अलावा जैसलमेर में 2 बार और शाका हुआ जैसलमेर के कुल 3 शाकों में से अंतिम शाका अधूरा माना गया क्योंकि सन 1550 ई में भाटी शासक लूणकरण के शासन काल मे कंधार के शासक अमीर अली ने आक्रमण किया था उस वक़्त केशरिया तो हो गया था लेकिन जौहर होने से पहले मुस्लिम सेना दुर्ग में प्रवेश कर गयी थी औऱ जौहर को रोक लिया गया था जिस कारण इसे जैसलमेर के इतिहास का अर्ध शाका माना जाता है,

  मेवाड़ में कुल 3 बार पूर्ण शाका हुआ था जिसमे सन 1303 ई में मेवाड़ के राणा रतनसिंह के शासन काल मे अल्लाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण किया था तब रानी पद्मनी के नेतृत्व में वीरांगनाओ ने जौहर किया , युद्ध क्षेत्र में राजपूती सैनिकों ने केशरिया वस्त्र धारण करके अपना बलिदान दिया था। इसीक्रम में रणथंबोर का शाका, गागरौन के दोनों शाके, और जालोर के शाके भी आते हैं जिनके बारे में नीचे क्रम और राज्यवार बताया जाएगा ।


जैसलमेर के शाके

जैसलमेर के शाके :- 

जैसलमेर राजस्थान के पश्चिमी हिस्से में स्थित जिला है जो पूर्व मारवाड़ राज्य का हिस्सा रहा । जैसलमेर शहर औऱ किला तत्कालीन भाटी शासक जैसल सिंह भाटी द्वारा किया गया यह रेगिस्तान में स्थित बहुत ही दुर्गम औऱ अजेय किला है जिसके बारे में एक लोकोक्ति प्रचलित है

  " घोड़ा कीजै काठ का पग कीजै पाषाण,

     बख्तर कीजै लौह का जद पहुँचे जैसाण।। "

अर्थात अगर आपको जैसाण दुर्ग पहुचना है तो आपको काठ मतलब लकड़ी का घोड़ा चाहिए , और आपके पैर पत्थर के होने चाहिए, आपका बख्तर लोहे का होना चाहिए तब जाकर ही आप गढ़ जैसाण तक पहुच सकते हो ।


यहा पर बाहरी आक्रमण बहुत बार हुए जिसमें काफी युद्ध मे जैसलमेर को हार का सामना भी करना पड़ा था औऱ जौहर और शाका करने जैसे हालात भी बने फलतः इस किले में 2 बार पूर्ण शाके और एक अर्ध शाका हुआ था।


जैसलमेर का पहला शाका :-

     सन लगभग 1300 ई में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने जैसाण दुर्ग पर आक्रमण किया तब के तत्कालीन भाटी शासक रावल मूलराज और राणा रतनसी ने ख़िलज़ीयो की सेना के साथ पूरी वीरता से युद्ध लड़ा और जब दुर्ग में स्थित वीरांगनाओ की लगा कि इस युद्ध मे भाटियों की हर निश्चित है तो सबने सामूहिक रूप से खुद को जौहर ज्वाला में समर्पित कर दिया । युद्ध का परिणाम खिलजियों के हक में रहा औऱ जैसाण किले पर मुस्लिमो का शासन प्रारम्भ हो गया । ये शाका राजस्थान के इतिहास का पहला ज्ञात शाका रहा था ।

  

जैसलमेर का दूसरा शाका :- 

     

जैसलमेर के प्रथम शाके के 5 वर्ष पश्चात जब जैसलमेर पर वापस भाटी शासको का राज्य हुआ और रावल दूदा सिंह भाटी ने गढ़ जैसाण की कमान संभाली तब उन्होंने तुगलकों को बारी बारी छोटे छोटे आक्रमण करके बहुत क्षति पहुचाई । इससे से रुष्ठ होकर फिरोजशाह तुगलक ने एक बड़ी सेना को जैसलमेर भेजा और जैसाण दुर्ग के घेरा देकर बैठ गए ।

रावल दूदा पहले ही जौहर और शाके  का मन बना चुका था, तो रोज घेरा डाले हुए तुगलक सैनिकों पर रोज धावे करता रहता था, तुगलकों ने बहुत दिनों तक घेरा डाला पर फिर भी कोई सफलता नही मिली, रावल दूदा ने तुगलकों को भृमित करने के लिये की दुर्ग में अभी भी खाने पीने के पर्याप्त भंडार है ये दिखाने के लिये सुअरों के दूध से सनी हुई पतले दुर्ग के बाहर फैंकी , जिससे तुगलकों को लगा कि उनकी घेरा बंदी का इन पर कोई असर नही हुआ और दुर्ग में अभी भी भरपूर मात्रा में रसद उपलब्ध हैं , तो तुग़लकी सेना घेरा उठा कर चलने लगी ,तभी  देशद्रोही भीमसेन ने शहनाई बजा कर तुगलकी सेना को संदेश दिया कि दुर्ग में रसद सामग्री समाप्त होने वाली हैं , ये सुनकर तुगलकों ने पुनः दुर्ग ओर घेरा बन्दी कर दी फलतः रावल दूदा के पास कोई औऱ रास्ता नही बचा सिवाय दुर्ग के द्वार खोल कर केशरिया करने के , तो रावल दूदा ने रानी सोढ़ी को जोहर करने की तिथि बताई , जब रानी सोढ़ी ने स्वर्ग में उनकी पहचान के लिये चिन्ह मांगा तो रावल दूदा ने अपने पैर का अंगूठा काटकर रानी सोढ़ी को सौप दिया उसके बाद रानी सोढ़ी ने 1600 वीरांगनाओ के साथ दशमी के दिन जोहर कुंड में प्रवेश किया। अगले दिन एकादशी थी उस दिन केशरिया करने का निश्चय रावल दूदा द्वारा किया जाना था , जब सभी वीर मिलकर केशरिया की तैयारी कर रहे थे तभी 

एक युवक  धाडू जो 15 वर्ष का था वो केशरिया में शामिल होना चाहता था उसने सुना था लेकिन अल्पायु और कुंवारे केशरिया में हिस्सा नही लेते अतः यह जानकर  वह दु:खी हुआ। यह जानकर रावल ने अपनी एक मात्र राज कन्या जो नौ वर्ष की थी से धाडू का विवाह दशमी की आधी रात गए कर दिया। प्रभात होने पर उस राजकन्या ने जौहर में प्रवेश किया।

अब एकादशी के दिन दुर्ग के कपाट खोले गए और 25 नेमणीयात (नियम धर्म से बन्धे) जूझारों के साथ सैकड़ों हिन्दू वीर शत्रु पर टूट पड़े। रावल दूदा के भाई वीर त्रिलोकसी के सम्मुख पाँजू नामक मुस्लिम सेना नायक आया। यह अपने शरीर को सिमटा कर तलवार के वार से बचाने में माहिर था। परन्तु त्रिलोकसी के एक झटके से सारा शरीर नौ भाग होकर गिर पड़ा। इस पर रावल दूदा ने त्रिलोकसी की बहुत प्रशंसा की, और कहा कि इस शौर्य को मेरी नजर ना लगे, कहते है तभी त्रिलोक सी का प्राणान्त हो गया। इस भयंकर युद्ध के अन्त में 1700 वीरों के साथ रावल दूदा अपने 100 चुने हुए अंग रक्षक योद्धाओं के साथ रणखेत रहे। भारत माता की रक्षा में रावल दूदा ने अपना क्षत्रित्व निभाया और हिन्दुत्व के लिए आशा का संचार किया।


जैसलमेर का तीसरा शाका ( अर्द्ध शाका ) :-


"जैसलमेर का अर्द्ध साका"


काबुल कंधार के शासक  अमीर अली खां को भगोड़ा घोषित कर उसे अपने राज्य से निकाल दिया गया | फिर वह 1550 ई. में जैसलमेर के महारावल लूणकरण भाटी की शरण में आया और तत्कालीन महारावल ने उसे अपने यहां शरण दे दी ,कुछ दिनों बाद अली खां के दिल में बेईमानी आ गयी और उसने जैसलमेर का राज्य हडपने का विचार किया। एक दिन महारावल लूणकरण को कहलाया की मेरी बेगमें आपकी रानियों से मिलना चाहती हैं। महारावल लूणकरण ने बात स्वीकार कर ली। 29 अप्रैल, 1550 ई. को सुबह अली खां ने बेगमों के स्थान पर मुसलमान सैनिकों को बिठाकर किले में भेज दिया और स्वयं 500 सैनिकों के साथ सुसज्जित होकर किले के बाहर खड़ा हो गया था, जब डोलियाँ अंत:पुर के द्वार पर पहुंची तो सारा भेद खुल गया था। फलतः राजपूतों व मुसलमानों में घमासान युद्ध छिड़ गया राजपूतों को इस षड्यंत्र का पहले से पता नहीं था इसलिय किले के दरवाजे खुले हुए थे। अली खां सेना सहित किले में घुस गया, अन्त:पुर के द्वार पालों ने देखा की मुस्लिम सेना का जोर ज्यादा है, तो उन्होंने रानियों के सतीत्व की रक्षा के लिए उन्हें तलवार से क़त्ल कर दिया , इस युद्ध में महारावल के भाई मंडलीक जी एक हजार सैनिकों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए । उस वक्त कुंवर मालदेव भाटी (महाराणा प्रताप के बहनोई) बाडी से आये और खिड़की से होकर किले पर चढ़कर अली खां को मार दिया । इस युद्ध में वीरों ने केसरिया तो किया, पर जौहर नहीं हुआ, इसलिए इसे "जैसलमेर का अर्द्ध साका" कहते हैं। 


चित्तौड़ के शाके

चित्तौड़गढ़ के शाके :- 

 चित्तौड़गढ़ नाम से ही विख्यात है, शायद ही पूरे देश मे कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो इतिहास से सम्बंध या रुचि रखता हो औऱ चित्तौड़गढ़ के बारे में नही जानता हो, क्योंकि चित्तौड़गढ़ मेवाड़ राज्य का ही पर्याय है अकेला चित्तौड़गढ़ मेवाड़ के इतिहास का सम्पूर्ण सार अपने अंदर लेके बैठे हैं , चित्तौड़गढ़ एशिया का सबसे बड़ा लिविंग फोर्ट ( रिहायशी किला) भी कहा जाता है। इस किले का निर्माण पांचवी सदी में मौर्यवंश के शासक चित्रांगद मौर्य ने करवाया । ये किला 7 मील यानी 13 कि.मी की लंबाई, 180 मी. ऊंचाई और 692 एकड़ में फैले हुए है। इसी किले में दुनिया का सबसे बड़ा जौहर जिसमे 16000 राजपूती वीरांगनाओ ने अपनी मान मर्यादा को बचाने के लिये एक साथ खुद को जोहराग्नि में समर्पित कर दिया था। ये ही वो चित्तोड हैं जिसमे सिसोदियाओ के महान शासक महाराणा संग्राम सिंह ( राणा सांगा ), दुर्ग स्थापत्य कला के महान प्रणेता महाराणा कुम्भा ( जिन्होंने पूरे देश में 84 दुर्गों का निर्माण करवाया जिसमे से 32 दुर्ग मेवाड़ में स्थित हैं), मातृभूमि के लिये सर्वस्व न्यौछावर करने वाले महाराणा प्रताप , अपने राज्य के राजकुमार के जीवन की रक्षा के बदले में अपने ही पुत्र का बलिदान देने वाली माता पन्नाधाय , और भी बहुत से वीर शिरोमणि रहे जो इस चित्तौड़ की पावन धरा पर अवतरित हुए । वैसे तो चित्तौड़ के बारे में बताने लगे तो हर शासक के कार्यों पर एक एक किताब लिखी जा सकती हैं पर हम यहां चित्तौड़ के इतिहास के पन्नो से उन तीन भयानक दिनों के बारे में चर्चा करेंगे जिनको याद करके दुश्मन तक का दिल दहल गया था ,हम बात कर रहे है चित्तौड़ के 3 शाकों की जो बहुत की दिल दहला देने वाले रहे।


चित्तौड़ का पहला शाका :-

    यहां पर भी राजस्थान की औऱ जगहों की भांति पहला शाका दिल्ली सल्तनत के खिलजी वंशीय सुल्तान अलाऊद्दीन खिलजी के कारण ही हुआ । बात 1303 ई की है उस वक्त के मेवाड़ के तत्कालीन शासक राणा रतनसिंह थे , जिन्होंने ने सिंहलद्वीप ( श्रीलंका ) की राजकुमारी पद्मनी जो अद्वित्य सुंदरी थी उसके की , उनकी सुंदरता के चर्चे पूरे मेवाड़ में थे माना जाता था कि जब महारानी जी पानी पीती थी तो उनके गले से पानी की घुट नीचे उतरती हुई प्रतीत हो जाती थी। उनकी इस सुंदरता का परचम मेवाड़ के भगोड़े दरबारी राघव चेतन ने दिल्ली तक पहुचाया औऱ जब ये बात सुल्तान को पता लगी तो वो रानी पदमनी को अपनाने के लिये चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिए, जैसे कि चित्तौड़ की बनावट औऱ उसके वाशिन्दों की ताकत थी उससे एक बात शुरू से ही प्रचलित थी कि सीधा हमला करके चित्तौड़ को कोई नही जीत सका पर , बाकी अरावली की पहाड़ियों से अलग थलग रहने की वजह से इस दुर्ग पर घेराबंदी आसानी से की जा सकती थी, तो खिलजी ने दुर्ग की घेराबंदी कर दी लेकिन जब घेराबंदी से दुर्ग काबू में आता नही दिखा तो खिलजी ने कूटनीति का सहारा लिया , जिसके तहत उसने दोस्ती औऱ शांति के नाम पर राणा रतनसिंह को अपनी छावनी में दावत पर बुलाया औऱ बन्दी बना कर दिल्ली ले गया । महाराणी पदमनी को संदेश भिजवा दिया गया कि अगर रतनसिंह को जिंदा चाहते हो तो पदमनी को दिल्ली आना होगा, राणी जी ने कूटनीति का सहारा लिया और सन्देश भेजा कि मैं अकेली नहीं आउंगी बल्कि मेरे साथ मेरी सात सौ दासियाँ भी आएँगी जो हर समय मेरी हर जरूरत का ध्यान रखती हैं। इस पर वो कामांध खिलजी और ज्यादा खुश हो गया। तब चित्तौड़ के एक सरदार "गोरा" के नेत्रत्व में एक काफिला तैयार हुआ. सात सौ पालकियां तैयार की गई उन सब मे स्त्री वेश में एक एक सिपाही और हथियार रखे. प्रत्येक पालकी को उठाने के लिए चार सैनिक कहार बन कर लग गए। रानी की पालकी में "बादल" रानी बनकर बैठा। जब सारी पालकियां अल्लाउदीन के शिविर के पास आकर रुकीं तो उनमे से राजपूत वीर अपनी तलवारों सहित निकल कर सेना पर अचानक टूट पड़े। इस तरह हुए अचानक हमले से अल्लाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी. पद्मिनी और गोरा-बादल ने राणा रत्नसिंह को अल्लाउद्दीन की कैद से मुक्त करा लिया लेकिन गोरा और बादल मारे गए । 


इस हार से बौखलाये खिलजी ने पुनः चित्तौड़ पर घेरा लगा दिया। 6 महीने की घेराबंदी के बाद जब चित्तौड़ की रसद सामग्री खत्म होने लगी तब राणा रतनसिंह सहित सभी यौद्धाओं ने केशरिया करने की ठानी तथा महिलाओं ने जौहर का प्रण लिया। अंततः 18 अप्रेल 1303 के दिन राजपूत केसरिया बाना पहन कर, अंतिम युद्ध के लिए तैयार हो गए और रानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16000 राजपूत सतियों ने अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया. महाराणा रत्न सिंह के नेतृत्व में 30,000 राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की तरह उस खिलजी की सेना पर टूट पड़े.

उस युद्ध में सभी 30000 राजपूत सैनिक तथा एक लाख से ज्यादा मुस्लिम सैनिक मारे गए। युद्ध में जीत के बाद जब खिलजी ने चित्तौड़ के किले में प्रवेश किया, तो सतियों की चिताओं और राजपूतों के शवों के सिवा कुछ नहीं मिला। रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और महारानी पद्मिनी ने स्वाभिमान की रक्षा की खातिर आत्मदाह कर लिया.


इस के बाद चित्तौड़गढ़ के सुनसान किले पर अलाउद्दीन खिलजी का कब्ज़ा हो गया. कहा जाता है कि - अलाउद्दीन खिलजी को केवल राजपूतानियों की चिताओं की राख से ही, लगभग 20 मन सोना प्राप्त हुआ था. सोना लूटकर अलाउद्दीन खिलजी ने किले का अधिकार अपने बेटे "खिज्र खान" को सौंप दिया और खुद दिल्ली वापस चला गया.

इस तरह 1303 में होने वाला ये शाका मेवाड़ के पहला औऱ राजस्थान का दूसरा पूर्ण शाका था।


चित्तौड़ का दूसरा शाका :- 

खानवा के युद्ध मे बाबर द्वारा राणा सांगा की पराजय हुई औऱ इस युद्ध मे घायल होने के कुछ समय बाद  राणा संग्रामसिंह जी की मृत्यु हो गयी उनके बाद विक्रमादित्य शासक बना । सन 1535 में गुजरात के शासक बहादुरशाह ने चित्तौड़ को कमजोर देख कर उसको हथियाने के लिये हमला कर दिया उसके पास तोपखाने थे, जिनकी वजह से चित्तौड़ की दीवारें जर्जर होने लगी क्योंकि ये दुर्ग काफी सदियों से अडिग खड़ा हुआ था , बहादुरशाह को आता देख कर विक्रमादित्य दुर्ग छोड़ कर भाग गया जिससे मेवाड़ी सेना का मनोबल और टूट गया । उसके बाद राणा सांगा की पत्नी और राजमाता कर्मावती ने मेवाड़ की बागडोर संभाली , यहा एक भ्रांति ये भी है कि रानी कर्मवती ने दुर्ग की रक्षा के लिये तत्कालीन मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेजी ताकि वो भाई धर्म निभा कर दुर्ग की रक्षा के लिये आगे आये लेकिन माना जाता हैं कि जब तक हुमायु आया तब तक चित्तौड़ में सब खत्म हो चुका था, इसके अलावा ये भी मिथक है कि हुमायु खुद चित्तौड़ पर अपनी नजर गढ़ाए हुए था तो वो खुद चित्तोर पर आक्रमण करने आ रहा था लेकिन जब बहादुरशाह ने हमला किया तो खुद को सारंगपुर में रोक लिया रहा। जब विक्रमादित्य दुर्ग छोड़ गया तब राजमाता कर्मावती ने जौहर का निर्णय लिया , लेकिन तत्कालीन रानी जो विक्रमादित्य की पत्नी थी महारानी जवाहरबाई जो युद्ध कौशल में निपुण थी और स्वयं की एक सेना महिलाओं की अलग से बनाई हुई थी उन्होंने कहा कि जौहर से नारीधर्म की रक्षा तो होगी किंतु देश की रक्षा नही होगी , इसलिय यदि मरना ही है तो शत्रुओं को मारकर मरना वीरोचित होगा। महाराणी के ये शब्द सुन कर पूरी मेवाड़ी सेना जोश से भर गई उसके बाद महारानी के साथ पूरी मेवाड़ी सेना केशरिया बाना पहन कर युद्ध मे कूद गए महारानीजी  बहादुरशाह के तोपखाने पर कब्जा करना चाहती थी लेकिन उसमें असफल रही औऱ पूरी सेना वीरगति को प्राप्त हुई लेकिन बहादुरशाह को इस युद्ध मे बहुत अधिक सैन्य क्षति उठानी पड़ी , उसके बाद राजमाता कर्मावती के नेतृत्व में 13000 राजपूत क्षत्राणियो ने जौहर कुंड की अग्नि में जय भवानी का उद्धघोष करके खुद को अग्निकुंड में झोंक दिया । इसके बाद बहादुरशाह का दुर्ग पर कब्जा हो गया लेकिन वापस लौटते समय मंदसौर में हुमायु की सेना ने बहादुरशाह पर हमला कर दिया नतीजातन बहादुरशाह को जान बचा कर मांडू भागना पड़ा । ये मेवाड़ के इतिहास का दूसरा शाका रहा जो पहले जितना ही विभत्स था।


चित्तौड़ का तीसरा शाका :- 


"नारी जद जौहर करे,

नर देवण सिर होड़ |

मरणो अठे मसखरी,

यो मेवाड़ी चित्तौड़ ||"

 

ये लोकोक्ति मेवाड़ के लिये बिल्कुल उचित बैठती है, मेवाड़ के तीसरा जौहर 23/24 फरवरी 1568 ई में हुआ उस वक़्त मेवाड़ के तत्कालीन सम्राट राणा उदयसिंह थे। ये मेवाड़ का पहला ऐसा शाका था जिसमे केशरिया औऱ जौहर दोनों का नेतृत्व राज परिवार से न होकर सेनापतियों के परिवारों ने नेतृत्व में किया गया था। 


तीसरा जौहर मुगल बादशाह अकबर के चितोड़ पर आक्रमण की वजह से हुआ इस युद्ध मे अकबर की तरफ से राजपूती शासक कछुवाहा राजवंश के भगवानदास कछवाहा ने दिया जो आमेर जयपुर के शासक थे। जब अकबर ने दुर्ग पर घेराबंदी की हुई थी तब महाराणा प्रताप और राणा उदयसिंह दोनों दुर्ग से निकाले जा चुके थे औऱ मेवाड़ी सेना का नेतृत्व जयमल राठोड़ ओर पत्ता चुंडावत के हाथों में था। 

23 फरवरी, 1568 ई. रात्रि को जयमल राठौड़ दुर्ग की मरम्मत करवा रहे थे, तभी अकबर की नजर उन पर पड़ी | अकबर ने जयमल राठौड़ के वस्त्रों को देखकर अंदाजा लगाया कि ये कोई विशेष व्यक्ति होगा और उसने बिना समय गंवाए चित्तौड़ी बुर्ज से अपनी संग्राम नामक बन्दूक से जयमल राठौड़ पर निशाना साधा | गोली जयमल राठौड़ के पैर में लगी और वे बुरी तरह जख्मी हो गए |


राजपूत लोग जयमल राठौड़ को महलों में ले गए


अकबर ने भगवानदास से कहा कि "ये गोली जरुर उस आदमी को लगी है, क्योंकि जब मेरी बन्दूक की गोली शिकार पर लगती है, तो मुझे मालूम पड़ जाता है"अकबर के सिपहसालारों ने कहा कि "हुजूर ये आदमी यहां बहुत बार आया है और अब अगर ना आए, तो समझ लेना चाहिए कि जरुर मारा गया होगा"


अबुल फजल लिखता है "शहंशाह के बन्दूक की गोली से जयमल राठौड़ मारा गया"

    अकबर द्वारा जयमल राठौड़ को गोली मारना

(अबुल फजल, निजामुद्दीन अहमद बख्शी वगैरह फारसी इतिहासकारों ने अकबर की ज्यादा तारीफ करने की खातिर ऐसा लिख दिया, जबकि हकीकत में जयमल राठौड़ के पैर में गोली लगी थी और वे जिन्दा थे | इसका एक प्रमाण और भी है कि जयमल राठौड़ की छतरी द्वार पर बनी है, जिससे साबित होता है कि वे जरुर बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे | तीसरा प्रमाण ये है कि अकबर ने जयमल-पत्ता की मूर्तियां आगरा में बनवाई थीं, अब यदि जयमल राठौड़ बिना बहादुरी दिखाए मारे गए होते, तो अकबर उनकी मूर्ति न बनवाता)

 

इसी दिन अर्द्धरात्रि को चित्तौड़ का तीसरा जौहर हुआ ,इस जौहर का नेतृत्व पत्ता चुण्डावत की एक पत्नी फूल कंवर ने किया।ये जौहर दुर्ग में 3 अलग-अलग स्थानों पर हुआ -

 पत्ता चुण्डावत के महल में,  साहिब खान के महल मे, ईसरदास मेड़तिया के महल में।

     अबुल फजल लिखता है "हमारी फौज 2 दिन से भूखी-प्यासी होने के बावजूद सुरंगों को तैयार करने में लगी रही | इसी दिन रात को अचानक किले से धुंआ उठता नजर आया | सभी सिपहसालार अंदाजा लगाने लगे कि अंदर क्या हुआ होगा, तभी आमेर के भगवानदास ने शहंशाह को बताया कि किले में जो आग जल रही है, वो जौहर की आग है और राजपूत लोग केसरिया के लिए तैयार हैं, सो हमको भी तैयार हो जाना चाहिए" , अबुल फजल ने 3 स्थानों में से सबसे बड़ा जौहर ईसरदास मेड़तिया के महल में होना लिखा है, जहां अबुल फजल ने जौहर करने वाली वीरांगनाओं की संख्या 300 बताई है |


पत्ता चुण्डावत की माता सज्जन कंवर, 9 पत्नियों, 5 पुत्रियों व 2 छोटे पुत्रों ने जौहर किया | कुछ इतिहासकार पत्ता चुण्डावत की माता सज्जन कंवर व पहली पत्नी जीवा बाई सोलंकिनी के युद्ध में लड़ते हुए वीरगति पाने का उल्लेख करते हैं, जो कि सही नहीं है |


दुर्ग में जौहर करने वाली कुछ प्रमुख राजपूत वीरांगनाओं के नाम इस तरह हैं -

रानी फूल कंवर :- इन्होंने चित्तौड़ के तीसरे जौहर का नेतृत्व किया | ये पत्ता चुण्डावत की पत्नी थीं | पत्ता चुण्डावत ने जयमल राठौड़ की पुत्री से विवाह किया था, इसलिए सम्भवत: ये जयमल राठौड़ की पुत्री थीं |

 सज्जन बाई सोनगरी :- पत्ता चुण्डावत की माता

 रानी मदालसा बाई कछवाही :- सहसमल की पुत्री

 जीवा बाई सोलंकिनी :- सामन्तसी की पुत्री व पत्ता चुण्डावत की पत्नी

 रानी सारदा बाई राठौड़

रानी भगवती बाई :- ईसरदास जी की पुत्री

 रानी पद्मावती बाई झाली

रानी बगदी बाई चौहान

रानी रतन बाई राठौड़

रानी बलेसा बाई चौहान

 रानी बागड़ेची आशा बाई :- प्रभार डूंगरसी की पुत्री


पत्ता चुण्डावत का महल - चित्तौड़ के तीसरे जौहर के तीन स्थानों में से एक

 चित्तौड़ के तीसरे जौहर के प्रमाण स्वरुप भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने समिद्धेश्वर मन्दिर के पास सफाई करवाई तो राख और हड्डियां बड़ी मात्रा में मिलीं।

उसके बाद राजपूती सैनिकों ने केशरिया पहन कर मुगलो की सेना पर टूट पड़े, और अपने आप को मातृभूमि की रक्षा के लिये बलिदान कर दिया, जयमल औऱ पत्ता की वीरता से प्रभावित होकर अकबर ने दोनो की मूर्ति आगरा के किलेमे लगवाई। इस जौहर को देख कर अकबर भयंकर विचलित हुआ औऱ पहली बार कोई मुगल अपनी जीत पर रोया था।





पार्ट 2


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