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ब्राह्मणों की महिमा तथा छब्बीस दोषो का वर्णन...

श्रीसूतजी बोले-हे द्विजोत्तम! तीनों वर्गों में ब्राह्मण जन्म से प्रभु है काव्य और काव्य सभी की रक्षा के लिये तपस्या के द्वारा ब्राह्मण की प्रथम सृष्टि की गयी है। देवगण इन्हीं के मुख से हव्य और पितृगण काव्य स्वीकार करते हैं। अतः इनसे श्रेष्ठ कौन हो सकता है।

ब्राह्मण जन्म से ही श्रेष्ठ हैं और सभी से पूजनीय हैं। जिसके गर्भधारण आदि अड़तालीस संस्कार शास्त्र विधि से सम्पन्न होते हैं, वही सच्चा ब्राह्मण है। द्विज पूजा कर देवगण स्वर्गफल भोगने का लाभ प्राप्त करते हैं। अन्य मनुष्य भी ब्राह्मण की पूजा कर देवता को प्राप्त करते हैं। जिसपर ब्राह्मण प्रसन्न होते हैं, उसपर भगवान विष्णु प्रसन्न हो जाते हैं। वेद भी ब्राह्मणों के मुख में संनिहित रहते हैं । सभी विषयों का ज्ञान होने के कारण ब्राह्मण ही देवताओं की पूजा, पितृ कार्य, यज्ञ, विवाह, वह्नि कार्य, शान्ति कर्म, स्वस्त्ययन आदि के सम्पादन में प्रशस्त है। ब्राह्मण के बिना देवकार्य, पितृ कार्य तथा यज्ञ-कार्यों में दान, होम और बलि-ये सभी निष्फल होते हैं। ब्राह्मण को देखकर श्रद्धापूर्वक अभिवादन करना चाहिये, उसके द्वारा कहे गये 'दीर्घायु भव' शब्द से मनुष्य चिरंजीवी होता है। द्विज श्रेष्ठ ! ब्राह्मण की पूजा से आयु, कीर्ति, विद्या और धन की वृद्धि होती है। जहाँ जल से विप्रो का पाद-प्रक्षालन नहीं किया जाता, वेद-शास्त्रों का उच्चारण नहीं होता और जहाँ स्वाहा, स्वधा और स्वस्तिक ध्वनि नहीं होती, ऐसा गृह श्मशान के समान है। विद्वानों ने नरकगामी मनुष्य के छब्बीस दोष बतलाये हैं, जिन्हें त्यागकर शुद्धतापूर्वक निवास करना चाहिये-

(१) अधम, (२) विषम, (३) पशु, (४) पिशुन, (५) कृपण, (६) पापिष्ठ, (७) नष्ट, (८) रुष्ट, (९) दुष्ट, (१०) पुष्ट, (११) हृष्ट, (१२) काण, (१३) अन्ध, (१४) खण्ड, (१५) चण्ड, (१६) कुष्ठ, (१७) दत्तापहारक, (१८) वक्ता, (१९) कदर्य, (२०) दण्ड, (२१) नीच, (२२) खल, (२३) वाचाल, (२४) चपल, (२५) मलमास तथा (२६) स्तेयी।

उपर्युक्त छब्बीस दोषों के भी अनेक भेद प्रभेद बतलाये गये हैं। विप्रेन्द्र! इन (छब्बीस) दोषों का विवरण संक्षेप में इस प्रकार है

१. गुरु तथा देवता के सम्मुख जूता और छाता धारणकर जाने वाले, गुरु के सम्मुख उच्च आसन पर बैठने वाले, यान पर चढ़कर तीर्थ-यात्रा करने वाले तथा तीर्थ में ग्राम्य धर्म का आचरण करने वाले ये सभी अधम-संज्ञक दोषयुक्त व्यक्ति कहे गये हैं।

२. प्रकट में प्रिय और मधुर वाणी बोलने वाले पर हृदय में हालाहल विष धारण करने वाले, कहते कुछ और हैं तथा आचरण कुछ और ही करते हैं-ये दोनों विषम-संज्ञक दोषयुक्त व्यक्ति कहे जाते हैं।

३. मोक्ष की चिन्ता छोड़कर सांसारिक चिंताओं में श्रम करने वाले, हरि की सेवा से रहित, प्रयाग में रहते हुए भी अन्यत्र स्नान करने वाले, प्रत्यक्ष देव को छोड़कर अदृष्ट की सेवा करने वाले तथा शास्त्रों के सार-तत्त्व को न मानने वाले - ये सभी पशु-संज्ञक दोषयुक्त व्यक्ति हैं। ।

४ बल से अथवा छल-छद्म से या मिथ्या प्रेम का प्रदर्शन कर ठगने वाले व्यक्ति को पिशुन दोष युक्त कहा गया है।

५. देव-सम्बन्धी और पितृ-सम्बन्धी कर्मों में मधुर अन्न की व्यवस्था रहते हुए भी म्लान और तिक्त अन्न का भोजन कराने वाला दुर्बुद्धि मानव कृपण है, उसे न तो स्वर्ग मिलता है और न मोक्ष ही। जो अप्रसन्न मन से कुत्सित वस्तु का दान करता एवं क्रोध के साथ देवता आदि की पूजा करता है, वह सभी धर्म से बहिष्कृत कृपण कहा जाता है। निर्दुष्ट होते हुए भी शुभ का परित्याग तथा शुभ शरीर का विक्रय करने वाला कृपण कहलाता है।

६. माता-पिता और गुरु का त्याग करने वाला, पवित्राचार रहित, पिता के सम्मुख नि:संकोच भोजन करने वाला, जीवित पिता-माता का परित्याग करने वाला, उनकी कभी भी सेवा न करने वाला तथा होम-यज्ञादि का लोप करने वाला पापिष्ठ कहलाता है।

७. साधु आचरण का परित्याग कर झूठी सेवा का प्रदर्शन करने वाले, वेश्यागामी, देव धन के द्वारा जीवन-यापन करने वाले, भार्या के व्यभिचार द्वारा प्राप्त धन से जीवन-यापन करने वाले या कन्या को बेचकर अथवा स्त्री के धन से जीवन यापन करने वाले ये सब नष्ट-संज्ञक व्यक्ति हैं ये स्वर्ग एवं मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं।

८. जिसका मन सदा क्रुद्ध रहता है, अपनी हीनता देखकर जो क्रोध करता है, जिसकी भौंहें कुटिल हैं तथा जो क्रोध और रुष्ट स्वभाव वाला है-ऐसे ये पाँच प्रकार के व्यक्ति रुष्ट कह गये हैं।

९. अकार्यमें या निन्दित आचार में ही जीवन व्यतीत करने वाला, धर्म कार्य में अस्थिर, निद्रालु, दुर्व्यसन में आसक्त, मद्यपायी, स्त्री-सेवी, सदैव दुष्टों के साथ वार्तालाप करने वाला-ऐसे सात प्रकार के व्यक्ति दुष्ट कहे गये हैं।

१०. अकेले ही मधुर-मिष्ठान भक्षण करने वाले, वञ्चक, सज्जनों के निन्दक, शूकर के समान वृत्तीय वाले-ये सब पुष्ट संज्ञक व्यक्ति कहे जाते हैं।

११. जो निगम (वेद), आगम (तन्त्र) का अध्ययन नहीं करता है और न इन्हें सुनता ही है, वह पापात्मा हृष्ट कहा जाता है।

१२-१३. श्रुति और स्मृति ब्राह्मणों के ये दो नेत्र हैं। एक से रहित व्यक्ति काना और दोनों से हीन अन्धा कहा जाता है ।

१४. अपने सहोदर से विवाद करने वाला, माता-पिता के लिये अप्रिय वचन बोलने वाला खण्ड कहा जाता है।

१५. शास्त्र की निन्दा करने वाला, चुगलखोर, राजगामी, शूद्र सेवक, शूद्र पत्नी से अनाचरण करने वाला, शूद्र के घर पर पके हुए अन्न को एक बार भी खाने वाला या शूद्र के घर पर पाँच दिनों तक निवास करने वाला व्यक्ति चण्डदोष वाला कहा जाता है।

१६. आठ प्रकार के कुष्ठ से समन्वित, त्रिकुष्ठी, शास्त्र में निन्दित व्यक्तियों के साथ वार्तालाप करने वाला अधम व्यक्ति कुष्ठ दोषयुक्त कहा जाता है।

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